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Motivational Hindi Kavita | पाशिका (भाग-1) | कविकुमार सुमित

पाशिका (भाग-1)

मेरे पीछे कदम बहुत हैं,
कुछ छोटे, कुछ नौसिखिये,
अभी चला हूँ आगे-आगे,
तनिक ठहरकर फिर चलिए |

मेरे पैरों में कुछ कांटे,
कुछ शूल हैं, उनकी खातिर,
हल्की बारिस की बूंदों से,
उगे हुए कुछ घांस हैं फिर |

अचरज से तुमने देखा, जो
नूर मेरे गालों वाली,
इसको पाने तय कि मैंने,
राह रात काली-काली |

बातों कि शीतलता पीछे,
ठोकर और अपमान छिपे,
कर्म पाशिका चढ़ते-चढ़ते,
तुम जैसे सौ लाख बिके |

अकड़ थी ऐसी देश हरा दूं,
रीढ़ ने बोला थोडा झुक,
मौसम अभी न आया तेरा,
हवा खाद पानी तक रुक |

कृत्य पाशिका चढ़कर मानुष,
वीर या कायर बनता है,
गरल युद्ध का पीते-पीते,
यश तमगों को चुनता है |

नियति नहीं निर्धारित करती,
किस आसन पर बैठेगा ? 
घाव वक्ष के बतलाते हैं,
सिंहासन पर बैठेगा ?

पाषाणों को रगड़-रगड़ कर,
अग्नि ह्रदय में उतरी है,
क्षुब्ध आग की ही लपटों से,
चमक धरा में बिखरी है |

वीर्य नहीं तय करता,
ना गर्भाशय तय करता,
कण्ठों में उतरा विष निश्चित,
जीवन आशय तय करता |

कर्म पाशिका खड़ी हुई है,
आओ गर्दन लेकर,
आज पुनः होगी वह शानी,
तेरा शोणित पीकर |

लोग कतारों में आएँगे,
लेकर मालाएँ ताज़ी,
तेरा श्रेय सभी का होगा,
लगा सुखों कि बाज़ी |

तिनका-तिनका नाच उठेगा,
स्वागत तेरा होगा,
सूद सहित सुख लौटेंगे,
यदि तूने तप भोगा |

ठण्डा लोहा पड़ी चोट, और
दावानल से डरता है,
अभिकल्पन कि पहली सीढ़ी,
पर कम्पन यदि करता है |

अहा और भी कई शब्द हैं,
जिनमे गाली शामिल है,
दिशाहीन और व्यर्थ समय कर,
बनते ख़ुद के क़ातिल हैं |

पूर्वनियोजित न प्रस्तावित,
कोई घटना होती है,
शीश तभी योद्धा का कटता,
आँखे खुलकर सोती हैं |

खुले चक्षु में स्वप्न पधारें,
खुले नयन से सोना मत,
काटे शत्रु घरों में घुसकर,
तब नियति पर रोना मत |

आत्मदाह की कायरता कर,
वंश कलंकित मत करना,
काम पाशिका की लपटों से,
स्त्री लाज नहीं हरना |

उसी गुहा से उपजे सब हैं,
जिसकी लालच में रत है,
पावन जिभ्या स्पर्श कराना,
एकमात्र क्या यह व्रत है |

पेय मिलेंगे कई राह में,
कुछ मादक कुछ शीतल,
अंत आचरण चयन करेगा,
भायेगा जो मन तल |

कई पाशिकाओं से होकर, उनमें 
चढ़कर जाना होगा,
कई मिलेंगे फंसे लूप में,
करना पार कराना होगा |

                                           -कविकुमार सुमित